श्राद्धसारसर्वस्व सप्तार्चिस्तोत्र अथवा पितृ-स्तुति

श्राद्धसारसर्वस्व सप्तार्चिस्तोत्र अथवा पितृ-स्तुति [पितरोंको प्रसन्न करनेवाला एक दिव्य स्तोत्र]

श्राद्धसारसर्वस्व सप्तार्चिस्तोत्र: पितरों को प्रसन्न करने वाला एक दिव्य स्तोत्र

यह स्तोत्र मार्कण्डेय पुराण से लिया गया है और इसका बहुत महत्व है। यह बताता है कि कैसे एक व्यक्ति अपने पितरों (पूर्वजों) को प्रसन्न करके उनकी कृपा और आशीर्वाद प्राप्त कर सकता है।

स्तोत्र का उद्भव: महात्मा रुचि की कथा

प्राचीन काल में, रुचि नामक एक बहुत ही सदाचारी और तपस्वी महात्मा थे। उन्होंने वैराग्य के कारण विवाह नहीं किया और सभी सांसारिक बंधनों को त्यागकर अकेले रहने लगे। वे अपने पितरों का बहुत सम्मान करते थे, लेकिन उनके पितर उनके अविवाहित रहने से निराश थे। एक दिन, उनके पितर प्रकट हुए और उन्होंने रुचि को गृहस्थ जीवन का महत्व समझाया। निराश मन से वे अंतर्ध्यान हो गए।

अपने पितरों की इच्छा पूरी करने के लिए, महात्मा रुचि ने विवाह की कामना से ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या की। ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और उन्होंने रुचि को सलाह दी कि वे अपने पितरों की शरण में जाकर उनकी स्तुति करें। ब्रह्मा जी के उपदेश के बाद, रुचि ने जिस स्तोत्र से अपने पितरों को प्रसन्न किया और अपनी मनोकामना पूरी की, उसी को श्राद्धसारसर्वस्व सप्तार्चिस्तोत्र या पितृ-स्तुति कहते हैं।

पितरों ने बताई स्तोत्र की महिमा

इस स्तोत्र की महिमा बताते हुए पितरों ने रुचि से कहा:

“जो भी व्यक्ति भक्तिभाव से इस स्तोत्र से हमारी स्तुति करेगा, हम उस पर प्रसन्न होकर उसकी सभी मनोकामनाएँ पूरी करेंगे और उसे उत्तम आत्मज्ञान प्रदान करेंगे। जो व्यक्ति स्वस्थ शरीर, धन, और संतान की इच्छा रखता हो, उसे हमेशा इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। यह स्तोत्र हमें बहुत प्रसन्न करता है।

श्राद्ध के समय, जो व्यक्ति श्राद्ध में आए हुए ब्राह्मणों के सामने खड़े होकर भक्तिपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करेगा, हम उसे सुनने के प्रेम से निश्चित रूप से वहाँ उपस्थित होंगे। इस पाठ से किया गया श्राद्ध हमारे लिए अक्षय (अविनाशी) हो जाएगा और श्राद्ध करने वाला हमारी तृप्ति करने में सक्षम होगा।

यह स्तोत्र जहाँ भी श्राद्ध में पढ़ा जाता है, वहाँ हमें बारह वर्षों तक तृप्ति मिलती है। विभिन्न ऋतुओं में इस स्तोत्र के पाठ का अलग-अलग फल मिलता है:

हेमंत ऋतु में पाठ से 12 वर्ष की तृप्ति।

शिशिर ऋतु में पाठ से 24 वर्ष की तृप्ति।

वसंत ऋतु में पाठ से 16 वर्ष की तृप्ति।

ग्रीष्म ऋतु में पाठ से भी 16 वर्ष की तृप्ति।

वर्षा ऋतु में यदि श्राद्ध अधूरा भी रह जाए, तो इस स्तोत्र के पाठ से वह पूर्ण हो जाता है और हमें अक्षय तृप्ति मिलती है।

शरद ऋतु में पाठ से 15 वर्ष की तृप्ति।

“जिस घर में यह स्तोत्र हमेशा लिखकर रखा जाता है, वहाँ श्राद्ध करने पर हमारी उपस्थिति निश्चित होती है। इसलिए, हे महाभाग! तुम्हें श्राद्ध में भोजन कर रहे ब्राह्मणों के सामने यह स्तोत्र अवश्य सुनाना चाहिए, क्योंकि यह हमारी शक्ति को बढ़ाता है।”

श्राद्धसारसर्वस्व सप्तार्चिस्तोत्र (मूल स्तोत्र)

इसके बाद मूल संस्कृत स्तोत्र और उसका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है।

रुचि बोले:

मैं उन पितरों को सदा नमस्कार करता हूँ, जिनकी पूजा सब करते हैं, जो निराकार हैं, अत्यंत तेजस्वी हैं, ध्यानी हैं और जिनके पास दिव्य दृष्टि है।

जो इंद्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच और सप्तऋषियों के भी नेता हैं, कामनाओं को पूरा करने वाले उन पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ।

जो मनु आदि राजर्षियों, मुनियों और सूर्य-चंद्रमा के भी स्वामी हैं, उन सभी पितरों को मैं जल और समुद्र में भी नमस्कार करता हूँ।

जो नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और स्वर्ग तथा पृथ्वी के भी नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

जो देवर्षियों के जनक हैं, सभी लोकों द्वारा पूजित हैं और हमेशा अक्षय फल देने वाले हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

मैं प्रजापति, कश्यप, सोम, वरुण और योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योग दृष्टि वाले स्वयंभू ब्रह्मा को प्रणाम करता हूँ।

मैं चंद्रमा पर प्रतिष्ठित और योगमूर्ति धारण करने वाले पितरों को प्रणाम करता हूँ। साथ ही, मैं संपूर्ण जगत के पिता सोम को और अग्नि स्वरूप अन्य पितरों को भी प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह पूरा जगत अग्नि और सोम से बना है।

जो पितर तेज में स्थित हैं, जो चंद्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दिखाई देते हैं, और जो जगत स्वरूप और ब्रह्म स्वरूप हैं, उन सभी योगी पितरों को मैं एकाग्र मन से बारंबार प्रणाम करता हूँ।

“वे स्वधाभोजी पितर मुझ पर प्रसन्न हों।”

(मार्कण्डेय महापुराण से उद्धृत)

मूल स्वरूप

प्राचीन कालकी बात है। रुचि नामक एक सदाचारी महात्मा थे, जिन्होंने विरक्तिके कारण विवाह नहीं किया तथा सभी प्रकारकी आसक्तियोंको त्यागकर अनाश्रमी होकर रहने लगे। वे अपने पितरोंके प्रति अत्यन्त श्रद्धाके भाव रखते थे। यद्यपि वे त्याग- तपस्यापूर्ण संयमी जीवन व्यतीत कर रहे थे, तथापि उनके विवाह न करनेसे उनसे स्नेह एवं आशा रखनेवाले पितर कुछ निराश थे। उन्होंने प्रकट होकर उन्हें विभिन्न युक्तियों एवं तर्कोंके द्वारा गृहस्थ आश्रमके महत्त्वको समझाया तथा खिन्न मनसे अदृश्य हो गये।
पितरोंकी अभिलाषाके अनुसार महात्मा रुचिने विवाह आदिकी कामनासे ब्रह्माजीकी तपः पूर्ण आराधना की। लोकपितामह ब्रह्माने प्रसन्न होकर उन्हें पुनः पितरोंकी शरणमें जानेका उपदेश दिया। तत्पश्चात् महात्मा रुचिने जिस स्तुतिके द्वारा पितरोंको सन्तुष्टकर
अभीष्ट फल प्राप्त किया, उसीको श्राद्धसारसर्वस्व सप्तार्चिस्तोत्र अथवा पितृ-स्तुति कहते हैं। मार्कण्डेय- पुराणमें इस स्तोत्रकी बड़ी महिमा बतायी गयी है। इसका माहात्म्य बताते हुए पितरगण कहते हैं—
‘जो मनुष्य इस स्तोत्रसे भक्तिपूर्वक हमारी स्तुति [ भाग ९७ ] करेगा, उसके ऊपर सन्तुष्ट होकर हमलोग उसे मनोवांछित भोग तथा उत्तम आत्मज्ञान प्रदान करेंगे। जो नीरोग शरीर, धन और पुत्र-पौत्र आदिकी इच्छा करता हो, वह सदा इस स्तोत्रसे हमलोगोंकी स्तुति करे। यह स्तोत्र हमलोगोंकी प्रसन्नता बढ़ानेवाला है। जो श्राद्धमें भोजन करनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके सामने खड़ा हो भक्तिपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करेगा, उसके यहाँ स्तोत्र श्रवणके प्रेमसे हम निश्चय ही उपस्थित होंगे और हमारे लिये किया हुआ श्राद्ध भी निःसंदेह अक्षय होगा। श्राद्धमें इस स्तोत्रके पाठसे श्राद्धकर्ता हमारी तृप्ति करनेमें समर्थ होता है। हमें सुख देनेवाला यह स्तोत्र जहाँ श्राद्धमें पढ़ा जाता है, वहाँ हमलोगोंको बारह वर्षोंतक बनी रहनेवाली तृप्ति प्राप्त होती है। यह स्तोत्र हेमन्त ऋतुमें श्राद्धके अवसरपर सुनानेसे हमें बारह वर्षोंके लिये तृप्ति प्रदान करता है। इसी प्रकार शिशिर ऋतुमें यह कल्याणमय स्तोत्र हमें चौबीस वर्षोंतक तृप्तिकारक होता है। वसन्त ऋतुके श्राद्धमें सुनानेपर यह सोलह वर्षोंतक तृप्तिकारक होता है तथा ग्रीष्म ऋतुमें पढ़े जानेपर भी यह उतने ही वर्षोंतक तृप्तिका साधक होता है। रुचे! वर्षा ऋतुमें किया हुआ श्राद्ध यदि किसी अंगसे विकल हो तो भी इस स्तोत्रके पाठसे पूर्ण होता है और उस श्राद्धसे हमें अक्षय तृप्ति होती है। शरत्कालमें भी श्राद्धके अवसरपर यदि इसका पाठ हो तो यह हमें पन्द्रह वर्षोंतकके लिये तृप्ति प्रदान करता है। जिस घरमें यह स्तोत्र सदा लिखकर रखा जाता है, वहाँ श्राद्ध करनेपर हमारी निश्चय ही उपस्थिति होती है; अतः महाभाग ! श्राद्धमें भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंके सामने तुम्हें यह स्तोत्र अवश्य सुनाना चाहिये; क्योंकि यह हमारी पुष्टि करनेवाला है।’
इसी स्तोत्रको श्रद्धालु पाठकोंके लिये यहाँ सानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है-
श्राद्धसारसर्वस्व सप्तार्चिस्तोत्र अथवा पितृ-स्तुति
रुचिरुवाच
अर्चितानाममूर्तानां पितॄणां
दीप्ततेजसाम् ।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम् ॥ इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा । सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान् ॥ मन्वादीनां मुनीन्द्राणां
तान् नमस्याम्यहं सर्वान्
सूर्याचन्द्रमसोस्तथा ।
पितॄनप्सूदधावपि ॥
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा । द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलिः ॥ देवर्षीणां जनितॄंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्। अक्षय्यस्य सदा दातॄन् नमस्येऽहं कृताञ्जलिः ॥ प्रजापतेः कश्यपाय सोमाय वरुणाय च। योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलिः ॥ नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु । स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे ॥ सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा । नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् ॥ अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितॄनहम्। अग्नीषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः ॥
ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः ।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः॥ तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः ।
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु
स्वधाभुजः ॥
[पितरोंकी स्तुति करते हुए ] रुचि बोले—जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टिसम्पन्न हैं, उन पितरोंको मैं सदा नमस्कार करता हूँ। जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरोंके भी नेता हैं, कामनाकी पूर्ति करनेवाले उन पितरोंको मैं प्रणाम करता हूँ। जो मनु आदि राजर्षियों, मुनीश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमाके भी नायक हैं, उन समस्त पितरोंको मैं जल और समुद्रमें भी नमस्कार करता हूँ । नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वीके भी जो नेता हैं, उन पितरोंको मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। जो देवर्षियोंके जन्मदाता, समस्त लोकोंद्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फलके दाता हैं, उन पितरोंको मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। प्रजापति, कश्यप, सोम, वरुण तथा योगेश्वरोंके रूपमें स्थित पितरोंको सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। सातों लोकोंमें स्थित सात पितृगणोंको नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजीको प्रणाम करता हूँ। चन्द्रमाके आधारपर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणोंको मैं प्रणाम करता हूँ। साथ ही सम्पूर्ण जगत्के पिता सोमको नमस्कार करता हूँ तथा अग्निस्वरूप अन्य पितरोंको भी प्रणाम करता हूँ; क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है। जो पितर तेजमें स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्निके रूपमें दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरोंको मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें बारंबार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों । [ मार्कण्डेय- महापुराण ]

(साई फीचर्स)