(डॉ प्रमोद शंकर सोनी)
अभी हाल ही में भोपाल के भेल स्थित कार्मल कॉन्वेंट स्कूल में एक हृदयविदारक घटना सामने आई। छठवीं कक्षा की छात्रा ने क्वार्टरली परीक्षा के दिन पहली मंज़िल से कूदकर आत्महत्या का प्रयास किया। कहा जाता है कि वह परीक्षा के दबाव में इतनी घबरा गई कि उसने जीवन का सामना करने के बजाय उससे भागने का रास्ता चुना। सौभाग्य से वह बच गई, पर तन से ज्यादा मन से घायल हो गई। उस उम्र में, जब उसकी दुनिया रंग-बिरंगे पेन, खेल और सपनों से भरी होनी चाहिए थी, उसके मन में आत्महत्या जैसे विचार आना व्यथित कर देने वाला है।
यह केवल एक बच्ची की कहानी नहीं, बल्कि उस माहौल की त्रासदी है जहाँ आज के बच्चे कठिनाइयों से जूझने की हिम्मत खोते जा रहे हैं। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था इतनी निर्दयी हो गई है कि बच्चे जीवन से ज्यादा परीक्षा की कॉपियों को भारी समझने लगे हैं? यह घटना समाज की आत्मा को झकझोर देने वाली है।
दुनिया भर में हर 40 सेकंड में एक इंसान आत्महत्या करता है। भारत में हालात और भी डरावने हैं। एनसीआरबी की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, हर रोज़ औसतन 450 लोग आत्महत्या करते हैं। इनमें सालाना करीब 13,000 छात्र शामिल हैं। यानी हर दिन 35 विद्यार्थी जीवन से हार मान रहे हैं। सोचिए, हर दिन 35 परिवार अपनी सुबह लाशों और चीखों के बीच बिताते हैं। यह आँकड़ा केवल संख्या नहीं, समाज की संवेदनहीनता का आईना है।
नज़र डालिए कोटा पर—देश का सबसे बड़ा कोचिंग हब। लाखों छात्र यहाँ आईआईटी और नीट की तैयारी करते हैं। लेकिन अब यह “आत्महत्या की राजधानी” बन चुका है। 2023 में 27 छात्रों ने जान दी और 2024 में यह संख्या और बढ़ गई। छोटे-छोटे कमरों में, जहाँ उम्मीदों की लौ जलनी चाहिए थी, खामोशी और मातम पसर जाता है। यह समस्या केवल कोटा तक सीमित नहीं। IIT मद्रास, IIT बॉम्बे, IIT दिल्ली और AIIMS जैसे संस्थानों में भी संवेदनशील छात्र दबाव, अकेलेपन और अवसाद से टूटकर फाँसी लगा लेते हैं।
यह त्रासदी केवल छात्रों तक सीमित नहीं है। खेतों में अन्न उगाने वाले किसान भी आत्महत्या कर रहे हैं। कर्ज़, सूखा, मौसम की मार और उचित मूल्य न मिलना उन्हें जीवन समाप्त करने को मजबूर कर देता है। यह विडंबना है कि जिस देश को “युवा शक्ति” और “अन्नदाता” पर गर्व है, वही देश इन्हीं दो वर्गों को आत्महत्या की खाई में धकेल रहा है।
आखिर क्यों बढ़ रही हैं आत्महत्याएँ?
आत्महत्या अचानक नहीं होती। यह भीतर जमा दर्द है जो अंततः विस्फोट बन जाता है।
* शिक्षा और बढ़ता कॉम्पटीशन – “टॉप करो, सबसे आगे निकलो” का दबाव बच्चों को मशीन बना रहा है।
* मानसिक तनाव और बेरोजगारी – योग्य डिग्रियाँ भी नौकरी की गारंटी नहीं देतीं।
* तुलना और ईर्ष्या – “वो आगे निकल गया, मैं क्यों नहीं?” यह सोच युवाओं को खोखला कर रही है।
* कम उम्र में सबकुछ पाने की चाह – धैर्य और संघर्ष की बजाय त्वरित सुख की लालसा।
* संयुक्त परिवार का विघटन – दादी-नानी की जीवन-सीख अब गायब हो गई।
* नशे की लत – शराब, सिगरेट और ड्रग्स युवाओं को असमय बर्बाद कर रहे हैं।
* मोबाइल और सोशल मीडिया – “लाइक्स” और “फॉलोअर्स” की दुनिया ने अवसाद बढ़ाया है।
* झूठे रिश्ते – अपरिपक्व प्रेम संबंध टूटते ही आत्महत्या की राह पकड़ लेते हैं।
* आध्यात्म और विश्वास से दूरी – संकट में साहस जुटाने का आधार कमजोर हो गया है।
सबसे बड़ी वजह है मानसिक अवसाद। यह साधारण उदासी नहीं, बल्कि गहरा अंधकार है। भारत में हर छह में से एक किशोर अवसाद से प्रभावित है। परिवार अक्सर इसे आलस्य या “ड्रामा” मानकर टाल देते हैं। समाज इस पर चर्चा से बचता है। यही चुप्पी अंततः मौत का रूप ले लेती है।
समाज की विफलता
आज हमने ऐसा समाज बना दिया है जहाँ असफल होना “अक्षम्य अपराध” है। “पहले आओ, सफल हो, वरना मिट जाओ” की मानसिकता बच्चों को जीवन से विमुख कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में छात्र आत्महत्याओं को “प्रणालीगत विफलता” कहा और शैक्षणिक संस्थानों के लिए 15 बिंदुओं वाली गाइडलाइन जारी की। इनमें काउंसलिंग, हेल्पलाइन और शिकायत निवारण तंत्र अनिवार्य किया गया है। लेकिन सवाल है—क्या गाइडलाइन से दिलों की पीड़ा मिट जाएगी? क्या आदेश से संवेदनशीलता आ जाएगी?
समाधान कहाँ है?
सबसे पहले शिक्षा व्यवस्था को बदलना होगा। बच्चों को केवल मशीन नहीं, इंसान समझना होगा। अंकों और रैंक से ज्यादा जीवन कौशल, धैर्य और भावनात्मक मजबूती सिखानी होगी। हर संस्थान में प्रशिक्षित काउंसलर होने चाहिए।
परिवारों को संवाद बढ़ाना होगा। बच्चों की असफलता को तिरस्कार से नहीं, सहारे से संभालना होगा। उनकी चुप्पी को अनसुना करना आत्महत्या की पहली सीढ़ी है।
मानसिक स्वास्थ्य पर खुली चर्चा करनी होगी। अवसाद और चिंता को बीमारी मानकर इलाज करना होगा। जैसे हम बुखार या डायबिटीज़ के लिए डॉक्टर के पास जाते हैं, वैसे ही मनोचिकित्सक के पास भी सहजता से जाना होगा।
सोशल मीडिया और नशे के जाल से युवाओं को बाहर निकालना होगा। खेल, कला, संगीत और रचनात्मकता की ओर मोड़ना होगा। सबसे बड़ी जिम्मेदारी परिवार की है। माता-पिता को यह समझना होगा कि बच्चे अंक या पैकेज नहीं, बल्कि जीवंत आत्माएँ हैं।
आत्महत्या किसी व्यक्ति की कमजोरी नहीं, बल्कि पूरे समाज की विफलता है। जब कोटा का छात्र फाँसी लगाता है, जब IIT का मेधावी टूट जाता है, जब किसान कर्ज़ से दबकर दम तोड़ देता है—तो यह केवल उनकी त्रासदी नहीं, हमारी संवेदनहीनता का शोकगीत है।
जीवन समस्याओं से भागने का नाम नहीं, संघर्ष करने, गिरने और फिर उठने का नाम है। हमें ऐसा वातावरण बनाना होगा जहाँ हर बच्चा, हर युवा और हर किसान यह महसूस करे कि उसका जीवन अनमोल है और उसकी पीड़ा समाज की साझी जिम्मेदारी है।
मानव शरीर ईश्वर का दिया सर्वोत्तम उपहार है। इसे स्वस्थ रखते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना ही मनुष्य का सर्वोपरि कर्तव्य है।
(लेखक होम्योपैथिक चिकित्सक और तुलसी सम्मान से अलंकृत हैं)
(साई फीचर्स)

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