(सुशांत कुमार)
अयोध्या में राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद की जमीन के मालिकाना हक का विवाद उलझता जा रहा है। कहां तो लग रहा था कि जल्दी ही मामला सुलझ जाएगा और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होकर विवाद का समाधान निकल जाएगा पर अब उसका उलटा हो रहा है। पिछले साल सुनवाई के दौरान कुछ वकीलों ने जब अदालत से कहा कि इस मामले की सुनवाई टाल दी जाए क्योंकि लोकसभा चुनाव पर इसका असर हो सकता है। वे चाहते थे कि लोकसभा चुनाव के बाद इस पर सुनवाई हो। पर तब के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने इस पर सबको फटकार लगाई थी और कहा था कि अदालत का किसी भी किस्म की राजनीति से कोई लेना देना नहीं है। उन्होंने 1994 के सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को मान लिया था कि इस्लाम में नमाज के लिए मस्जिद अनिवार्य नहीं है।
साथ ही जस्टिस मिश्रा ने यह भी साफ कर दिया था कि यह जमीन से जुड़े विवाद का मामला है और इसलिए संविधान पीठ की बजाय तीन जजों की बेंच सुनवाई करेगी। उन्होंने 29 अक्टूबर 2018 से सुनवाई की तारीख तय कर दी थी। पर नए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने न सिर्फ सुनवाई टाली, बल्कि मुकदमे का दायरा बढ़ाते हुए इसे पांच जजों की संविधान पीठ को सौंप दिया।
इस बीच केंद्र सरकार भी अदालत पहुंच गई है। उसने कहा है कि पीवी नरसिंह राव की सरकार ने जो 67 एकड़ जमीन अधिग्रहित की थी, उसे उसके मालिकों को सौंपा जाए। इसमें 40 एकड़ जमीन राम जन्मभूमि न्यास की है। सवाल है कि सरकार इस जमीन को क्यों छुड़ाना चाहती है और उसका क्या इस्तेमाल होगा?
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दी है कि 1994 में पीवी नरसिंह राव सरकार ने जो 67 एकड़ जमीन अधिग्रहित की थी, उसे जमीन मालिकों को सौंप दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस जमीन पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था। अब केंद्र सरकार इस मामले में सुप्रीम कोर्ट पहुंची है। सरकार का कहना है कि विवाद सिर्फ 2.77 एकड़ जमीन का है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट बाकी जमीन के इस्तेमाल पर लगी रोक को हटाए और जमीन उसके मालिकों को सौंपे।
सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही इस्माइल फारूकी मामले में कहा है कि बची हुई जमीन उसके मालिकों को सौंप दी जाएगी। सरकार भी यहीं चाहती है। उसने कहा है कि जमीन राम जन्मभूमि न्यास को सौंप दी जाए। याचिका में कहा गया है कि 2.77 एकड़ की विवादित जमीन तक पहुंचने के लिए रास्ता छोड़ने का प्रावधान करते हुए बाकी जमीन उसके मालिकों को सौंप दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट इस मामले में सुनवाई करेगी। इसे 2.77 एकड़ जमीन के मालिकाना हक के विवाद वाले मुकदमे के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
जमीन के मालिकाना हक के विवाद पर ही सुनवाई हो तो मामला बहुत सीधा लगता है। पर अब इसका दायरा बहुत बड़ा हो गया है। 1994 में अधिग्रहण के मसले पर हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस्लाम में नमाज के लिए मस्जिद अनिवार्य नहीं है। पिछले साल चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की बेंच ने जब जमीन विवाद को संविधान पीठ में भेजने के मसले पर विचार किया तो उनकी बेंच ने दो-एक के बहुमत से 1994 के फैसले को स्वीकार कर लिया और इसे संविधान पीठ को नहीं भेजा।
तब यह माना जा रहा था कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जैसे जमीन को तीन हिस्सों में बांटने का फैसला किया है, सुप्रीम कोर्ट भी उसी लाइन पर सुनवाई करेगी। पर चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने इसे संविधान पीठ बना कर इसका दायरा बढ़ा दिया है। यह जमीन के मालिकाना हक सहित इससे जुड़े दूसरे मसलों पर भी सुनवाई करने का संकेत है। इसलिए इसकी सुनवाई बहुत जटिल होने वाली है।
सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मामले की सुनवाई शुरू नहीं हुई है और चुनाव सर पर आ गया है इसलिए ऐसा लग रहा है कि सरकार ने दूसरा पासा फेंका है। उसे अंततः साधु समाज को समझाना है, अपने मतदाताओं को समझाना है, चुनाव से पहले मंदिर मुद्दे पर कुछ न कुछ ऐसा करना है, जिससे लगे कि सरकार वादा पूरा करने के लिए काम कर रही है।
तभी ऐसा लग रहा है कि सरकार राम जन्मभूमि न्यास को उसकी जमीन दिलाना चाहती है ताकि उस पर निर्माण कार्य शुरू हो। विवादित जगह पर निर्माण का काम फैसला आने के बाद हो सकता है। उससे पहले आसपास की जमीन पर निर्माण कार्य शुरू हो जाए तब भी चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों कह सकते हैं कि उन्होंने मंदिर निर्माण का कार्य शुरू करा दिया। बहरहाल, मकसद चाहे जो हो पर यह लग रहा है कि चुनाव से पहले अयोध्या को लेकर अदालती प्रक्रिया तेज रहेगी और उस पर राजनीति भी चलती रहेगी।
(साई फीचर्स)