मॉब लिंचिंग को लेकर खेमेबाजी से क्या होगा!

 

 

(शंभूनाथ शुक्ल)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल से लेकर अब तक मॉब लिंचिंग एक ऐसा अस्त्र बना हुआ है, जिसे अक्सर भाजपा विरोधी बुद्धिजीवी फलक पर ले ही आते हैं। यह अब फिर से चर्चा में है। इस बार मॉब लिंचिंग को लेकर मशहूर फिल्मकार अडूर गोपालकृष्णन और श्याम बेनेगल समेत कई बुद्धिजीवियों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर अनुरोध किया है कि किसी से जबरिया जय श्रीराम या वंदे मातरम बुलवाने के लिए मारने-पीटने की घटनाओं पर वह रोक लगवाएं। 23 जुलाई को भेजे गए इस पत्र में रामचंद्र गुहा, मणि रत्नम, अनुराग कश्यप, अपर्णा सेन, विनायक सेन, सौमित्र चटर्जी, गौतम घोष, कौशिक सेन, कोंकणा सेन शर्मा समेत कुल 49 हस्तियों के नाम हैं। इन लोगों ने कहा है कि अफसोस की बात है कि आज जय श्रीराम का इस्तेमाल उकसाने के लिए किया जा रहा है। यह एक भड़काऊ नारा बन गया है। भारत में अल्पसंख्यक समुदायों को राम के नाम पर डराया जा रहा है। राम की अवमानना करने पर रोक लगाने की जरूरत है। पत्र में लिखा है कि 29 अक्टूबर 2018 से जनवरी 2019 के दौरान देश में 254 से ज्यादा धार्मिक पहचान पर आधारित नफरत वाले अपराध दर्ज किए गए हैं। पत्र में पूछा गया है कि इन मामलों के दोषियों के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई है?

इसके तीन दिन बाद 62 अन्य बुद्धिजीवियों तथा सिने कलाकारों ने इस पत्र के विरोध में एक पत्र लिखा, जिसमें पूछा गया कि मॉब लिंचिंग पर ये लोग दोहरा रवैया क्यों रखते हैं। इन लोगों ने कहा कि जब नक्सली निरीह आदिवासियों को मारते हैं, तब ये लोग विरोध क्यों नहीं करते? इस पत्र में अभिनेत्री कंगना रनौत, गीतकार प्रसून जोशी, फिल्म निर्माता-निर्देशक मधुर भंडारकर आदि हस्तियां शामिल हैं। इन पत्र लेखकों का कहना है कि वाम झुकाव वाले मोदी विरोधी लोग हिंसा के बारे में दोहरा रुख रखते हैं। ये लोग चुन-चुन कर उन्हीं घटनाओं पर नाराजगी ज़ाहिर करते हैं, जिसमें सरकार को बदनाम करने का मौका मिले। जबकि यही लोग नक्सली हिंसा पर रहस्यमय तरीके से चुप्पी साध लेते हैं। इस पत्र में सेंसर बोर्ड अध्यक्ष प्रसून जोशी, नृत्यांगना सोनल मान सिंह, मोहन वीणा वादक पंडित विश्वमोहन भट्ट, फिल्मकार मधुर भंडारकर, विवेक ओबेरॉय और विवेक अग्निहोत्री आदि शामिल हैं। इन लोगों का आरोप है कि देश में आदिवासी और हाशिए पर मौजूद लोगों को निशाना बनाने, कश्मीर में अलगाववादियों के द्वारा स्कूल जलाने, नामी यूनिवर्सिटी में आतंकियों के समर्थन में भारत के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगने पर बुद्धिजीवियों की चुप्पी क्यों बनी रहती है?

यह विरोध अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि, प्रधानमंत्री के कामकाज के कारगर तरीके, राष्ट्रीयता और मानवता के खिलाफ है, जो भारतीयता के मूल्यों में शामिल है। संविधान ने हमें असहमति जताने का अधिकार दिया है, न कि भारत को तोड़ने की कोशिश करने का। लोगों का यह समूह महिलाओं को समानता का हक दिलाने और तीन तलाक के पक्ष में कभी खड़ा नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि अभिव्यक्ति की आजादी के सामने विरोध करने वालों के लिए देश की एकता और अखंडता के कोई मायने नहीं हैं। वैचारिक रूप से उनका अलगाववादियों, घुसपैठियों और आतंकियों के समर्थन का रिकॉर्ड रहा है। इसीलिए उनके अंदर विरोध की भावना है। जबकि मोदी सरकार सबका साथ सबका विकास के मंत्र के साथ आगे बढ़ रही है और प्रधानमंत्री स्वयं लिंचिंग की घटनाओं की आलोचना कर चुके हैं।

कंगना रनौत की अगुआई में लिखे इस पत्र में 49 हस्तियों के खिलाफ कार्रवाई की भी मांग की गई है। दूसरी तरफ उन 49 लोगों ने मॉब लिंचिंग की घटनाओं को गैर-जमानती अपराध घोषित करते हुए मांग की है कि ऐसे मामलों में तत्काल सजा सुनाई जानी चाहिए। यदि हत्या के मामले में बिना पेरोल के मौत की सजा सुनाई जाती है, तो फिर लिंचिंग के लिए क्यों नहीं? यह ज्यादा जघन्य अपराध है। नागरिकों को डर के साये में नहीं जीना चाहिए। सरकार के विरोध के नाम पर लोगों को राष्ट्र-विरोधी या शहरी नक्सल नहीं कहा जाना चाहिए और न ही उनका विरोध करना चाहिए। अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। असहमति जताना इसका ही एक भाग है।

इन दोनों खेमे के बुद्धिजीवी अपनी-अपनी जगह सही हैं। हर चीज को हर आदमी अपनी नजर से देखता है। मगर सच्चाई अपने स्थान पर जस की तस रहती है। एक सच्चाई यह है कि अब देश में दक्षिणपंथी भाजपा का राज है। जाहिर है, देश के सभी अकादमियों, विश्वविद्यालयों, प्रोफेसरों तथा बुद्धिजीवियों को लेकर भरे जाने वाले सारे पदों पर दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी काबिज हो गए हैं। यह स्वाभाविक भी है। हर सरकार यही करती है। इस वजह से वामपंथी खेमे के लोग नाखुश हैं। दूसरी ओर दक्षिण खेमे के लोगों को लग रहा है कि 70 साल बाद तो हमारा नंबर आया है, उसे भी ये लोग छीनना चाहते हैं। इसीलिए उनका गुस्सा और चिढ़ फूट रही है। ऐसी स्थिति में बीच का रास्ता अपनाना चाहिए। वामपंथी और कांग्रेस झुकाव वाले वामपंथी यह सोचें कि अब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं और अगले पांच साल तक वह जाने वाले नहीं। जो हालात हैं, उससे यह भी अनुमान लगाया जा सकता कि आने वाले चुनाव में भी भाजपा अब पीछे को जाएगी। इसीलिए उन्हें सरकार का कटु-विरोध करने की बजाय उसकी साफगोई और निष्पक्षता के साथ समीक्षा करनी चाहिए।

इसके साथ ही भाजपा खेमे के लोगों को सोचना चाहिए कि पिछली दो बार से उन्हें प्रचंड बहुमत मिल रहा है। इसीलिए उनका भी दायित्व बनता है कि वे लोग उनकी पीड़ा को समझें और यथासंभव उसका निदान तलाशें। भाजपा आज सत्ता में है, इसलिए उसे बड़प्पन दिखाना चाहिए। प्रधानमंत्री इस पूरे विवाद को खुद सुलझाएं। वे अगर उन 49 विरोधी खेमे के लोगों को चाय पर निमंत्रित करें और उनकी शिकायतें सुनकर उन्हें हल करने का भरोसा दें, तो पूरा मामला चुटकियों में सुलझ सकता है। क्योंकि मॉब लिंचिंग एक ऐसी फांस बन गया है, जिसका जड़-मूल भले वैसा न हो, जैसा कि ये लोग बता रहे हैं, पर इससे सरकार की बदनामी बहुत अधिक हो रही है। राजनीति में दो कदम आगे बढ़ने के लिए अक्सर एक कदम पीछे हटना पड़ता है। इस तरह खेमेबाजी में सरकार की नेक-नीयती भी खतरे में पड़ जाती है। इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री काफी नए कदम उठा रहे हैं, जो परंपरागत लोगों को भले अप्रिय लगें, लेकिन उनके परिणाम दूरगामी होंगे। किंतु बार-बार बुद्धिजीवियों की यह नोक-झोंक उनके कदमों को धुंधला कर देती है। इसकी एक वज़ह तो यह है कि आज से नहीं, बल्कि शुरू से ही भारत के अधिकांश लोग सत्तारूढ़ पार्टी के हर कदम को संदेह की नजरों से देखते हैं। ऐसे में भले वे 49 लोग हैं लेकिन उनकी आवाज दूर तलक जाती है। इसके विपरीत सरकार समर्थकों की आवाज उतना असर नहीं पैदा कर पाती। क्योंकि वह पहल नहीं होती, बल्कि विरोध में पहले उठी आवाज को काउंटर करने के लिए वे बोलते हैं।

(साई फीचर्स)