सनातनी हिंदूः क्या था क्या हुआ!

 

 

(हरी शंकर व्याास)

मैं बतौर हिंदू अपनी सनातनता से अपने को धन्य मानता हूं। संतोष और सार्थकता भी इसलिए क्योंकि मुझे जीने के तरीके में स्वतंत्रताएं मिली हुई हैं। मैं जैसे चाहूं वैसे जीऊं। मैं बंधा हुआ नहीं हूं। बतौर सनातनी मुझेअतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों वक्त के सत्य पर विचार, खोज करते हुए जीवन को अपने निज विश्वास की प्रक्रिया में जीना है और वैसे ही जीया भी हूं। मेरे लिए जरूरी नहीं कि मैं मंदिर जाऊं, कर्मकांड करूं, दिन में पांच दफा पूजा करूं या इस,ऐसे किसी जुनून में खपूं कि जैसा मैं मानता हूं वैसा दूसरों को बनाने के लिए तलवार उठाऊं! मेरा धर्म मेरा जीना है। तभी मेरी पहली जरूरत भी अनिवार्यतः मेरी स्वतंत्रता है। मतलब मैं यदि किसी के कहने में, किसी दबाव में, पैगंबर के आदेश या साझेदार – सामुदायिक – संस्थागत फतवों में जीने को मजबूर हुआ तो वह मेरे सनातनी अस्तित्व से समझौता होगा। वैसा मैं बरदाश्त नहीं कर सकता। हिंदू का सनातनी सत्य और उसकी पहचान का सत्व यह है कि वह परंपरा, विरासत, अमूर्त शास्त्रों के शास्त्राचार से संस्कारित हो कर देश, काल, वक्त अनुसार अपने विवेक से फैसला ले सकता है। जीवन जी सकता है।

कितनीगजबकी बात है यह!यह बाकी धर्मों से हिंदू को अलग बनाने वाली बात भी है!मतलब हम ठहरे हुए नहीं हैं। हमें हुक्म नहीं, दायित्व नहीं,हमारा मोक्ष इससे नहीं जो दारूल इस्लाम की तरह कोई हिंदू जगत बनाएं। हमारे जीवन जीने के रेफरेंस, संदर्भ बिंदु जरूर धर्मशास्त्र और वेद हैं। उनसे धर्म परिभाषित भी है। इसके साथ परंपरा, संस्कार, विरासत याकि स्मृति, यादों में कथाओं के जरिए धर्म का अपना सदाचार बनता है। यह लचीलेपन और कालानुकूल दिल – दिमाग, आत्मा की अनुकूलता या पसंद – नापसंद से व्यवहार में बदलता, झलकता जाता है। इस प्रक्रिया से ही सनातनी हिंदू की यह परिभाषा सौ टका सही है कि हिंदू धर्म ज्ञान को आचरण से जोड़ते रहने की सतत प्रक्रिया है। विद्यानिवास मिश्र ने अपने सनातनी शास्त्रों को ले कर कहा है कि शास्त्र एक जड़ वस्तु नहीं, यह निरंतर जीवन की व्याख्या में उतरते रहने वाला स्मृति से समृद्धतर होने वाला मनुष्य का निरंतर अनुभव है।

सो, सत्व – तत्व है कि शास्त्रों से हमें सत्य ज्ञात या प्राप्त है। वहीं हिंदू जीवन, हिंदू समाज के बुनावट की गंगोत्री है। उससे जीवन जीने के जीवन मूल्यों के रूप में हम – आपको जो प्राप्त है वहीं अपना जीना, जीने का अपना व्यवहार और संस्कार है। हां, अपनी भी परंपराएं और संस्थाएं है लेकिन धर्म क्योंकि संस्थागत, निश्चित – अनिवार्य विश्वासों को हमारे ऊपर थोपे हुए नहीं है इसलिए विवेक, स्वतंत्रता, आत्मानुकूलता में अपना व्यवहार बनाने को हम आजाद हैं।

तो पहला पहलू यह हुआ कि शास्त्राचार से उद्घाटित सत्य (जो चिरंतन, सनातनी, जीवन में निरंतरता और अखंडता का अनुभव और व्यवहार करवाता है।) में सबकुछ गुंथा हुआ है। मतलब वेद – पुराण, महाभारत, रामायण, गीता में जो कहा है, वह जीवन जीने के आचरण में घुट्टी की तरहघुला हुआ और जीवन की निरंतरता, अखंडता में विश्वास बनवाए हुए होना चाहिए। यह सनातनी विरासत का पहला तत्व है।

बात समझ नहीं आ रही होगी। सचमुच धर्म व्याख्या, आध्यात्म, दर्शन टेढ़ा मामला है। कोर बात है कि सनातनी धर्म के शास्त्र व्यक्ति के व्यवहार में ज्ञान (सनातनी सत्य) को जोड़ते रहने की सतत प्रक्रिया है। श्रीकृष्ण ने महाभारत के वक्त जो कहा और समझाया वह युधिष्ठर, अर्जुन को उनके व्यवहार, जीवन जीने के उस वक्त के तकाजे में बताया शास्त्र सम्मत ज्ञान था। सोचें श्रीकृष्ण उस समय यदि कर्मवाद, पुरूषार्थ और अभय होने का धर्म साक्षात्कार नहीं कराते तो महाभारत का क्या होता?श्रीकृष्ण ने वहीं कहा जो अपनी धर्म परंपरा में, शास्त्राचारों में पहले से उद्घाटित सनातनी सत्य है। उस नाते यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्घ्घ्की व्याख्या यह बननी चाहिए कि जब – जब सनातनी हिंदू चिरंतन सत्य को भूलता है। कर्म और पुरुषार्थ छोड़ता है, डरपोक – निर्बल और मूर्ख बनता है और उससेहानि व अधर्म बढ़ता है तो उस वक्त लोगों को यह समझाने की जरूरत होती है कि कर्मवाद, पुरूषार्थ, अभयता में जीना ही जीवन जीना है। अपने मूल में लौटें। कायर, मूर्ख, भाग्यवादी न बनें।

श्रीकृष्ण ने पांडवों में जान फूंकी। उन्हें जिंदादिल, अभय बनाया। उन्हें यह नहीं कहा कि मैं भगवान विष्णु का अवतारी राजा हूं तो मैं हूं न विधर्मी का नाश करने के लिए। नहीं, आदि काल से ले कर आज के हम सभी सनातनी हिंदुओं का धर्म यहीं था, है और रहना चाहिएकि आपको अपना जीवन खुद जीना है। और इसके लिए कभी न छोड़ें कर्मवाद, पुरूषार्थ और अभयवाद को। जीवन निरंतर है, हम पुनर्जन्म के विश्वास में जीते हैं और कर्मों का फल बेसिक सूत्र है तो भला अर्जुन की तरफ से श्रीकृष्ण कैसे लड़ सकते थे? श्रीकृष्ण ने क्यों यह बताया कि कर्म और धर्म तब संभव है जब पहले निर्भय रहें!मतलब डरपोक और आश्रित व्यक्ति कौम को, धर्म को, समाज व राष्ट्र – राज्य को और खुद को कभी सोने की चिड़िया नहीं बना सकता।

आप सोच सकते है कि मेरा विचार प्रवाह किधर जा रहा है? पर गंभीरता से सोचें कि हम हिंदू आज या तीन हजार साल के जाग्रत इतिहास में किस दशा में रहे हैं? कैसा जीवन हमने जीया है? सत्य के सनातनी सार को जानते हुए, कर्मवाद, पुरूषार्थ और अभय होने के निर्देशात्मक उपदेश लिए हुए होने के बावजूद हम तीन हजार सालों में कर्म और पुरूषार्थ से कैसे भागते रहे हैं? डर, आंतक, खौफ की निर्बलता व कमजोरी में कैसे घुट – घुट कर, नासमझी में जीये हैं हम, और अभी भी कैसे जी रहे हैं? सोचें, सौ करोड़ हिंदू आज कितनी तरह की कैसी खैरात में जीते हैं और सरकार को माईबाप मानते हुए उसके खौफ से ले कर विधर्मी के खौफ में हमारी सांस कैसे हिचकोले खा रही है!

एक तरफ वह आदि हिंदू, जिसका धर्म उसके जीने की आजादी, उसके निज कर्मों की गति में सनातनी अस्तित्व की गांरटी दिए हुए था, जिसके शास्त्राचार में कर्मवाद, पुरूषार्थ में अभय बन कर निज जीवन जीने का उपदेश था तो दूसरी तरफ ईसा पूर्व से ले कर आज तक के हिंदू का यह चरित्रनामा कि कर्मवाद नहीं भाग्यवाद, स्वतंत्रता नहीं गुलामी, पुरूषार्थ नहीं पराश्रय!भला यह सब कैसे और कब हुआ? कैसेसहज,भयरहित कर्मवादी, पुरूषार्थी सनातनी हिंदू इतिहास और वक्त के थपेड़ों में कायर, हिपोक्रेट, आश्रित व खामोख्याली में जीने वाला प्रलापी, लंगूरीहिंदू बना?

जवाब बूझ सकना बहुत मुश्किल है। इसलिए भी कि इतिहास अपना बहुत धुंधला है। फिर भी कोशिश करूंगा।

(साई फीचर्स)